ज्ञानवापी और कृष्ण जन्मभूमि देवालयों वाले अदालती वाद-प्रतिवाद के परिवेश में गत माह (19 जुलाई 2022) मद्रास हाईकोर्ट का एक दिशासूचक निर्णय अत्यधिक प्रभावोंत्पादक होगा. सदियों पुराने ग्राम देवता तलवैत्ति मुनिअप्पन के शैव मंदिर को पुरातत्वीय परीक्षण के बाद बौद्धमठ न्यास को सौंप दिया गया है. मूलतः वह बौद्ध बिहार था जहां कभी भगवान बुद्ध की अर्चना हुआ करती थी। दक्षिण तमिलनाडु के सेलम जनपद के पेरियारी गांव में यह बना है. तमिलनाडु सरकार तथा पांच अन्य के विरूद्ध याचिका (संख्या-4715, 2011), 21 फरवरी 2011 को मद्रास उच्च न्यायालय में बौद्ध मठन्यास ने दायर की थी. इस पर फैसला दिया आस्तिकवान, धर्मनिष्ठ न्यायमूर्ति एन. आनन्द वेंकटेशन ने. जज का निर्देश है शासन को केवल बौद्ध जन को ही परिसर में अर्चना पूजा करने की अनुमति होगी. अर्थात हिन्दु रेलिजंस एंड चेरिटेबल एण्डाउमेंट (एचआर एण्ड सीई) का अधिकार समाप्त कर दिया गया. अदालती आदेश में लिखा है कि: मंदिर परिसर में उक्त मूर्ति भगवान बुद्ध की होने की सूचना वाला बोर्ड लगाया जाए. जनता को दर्शन की अनुमति दी जा सकती है लेकिन यह सुनिश्चित किया जाए कि मूर्ति की कोई पूजा अथवा अन्य समारोह आयोजित नहीं हो.
निर्णय में कहा गया है कि पुरातत्व विभाग के आयुक्त द्वारा मंदिर की मूर्ति का निरीक्षण और सावधानीपूर्वक विश्लेषण करने के बाद निष्कर्ष निकला कि इसमें भगवान बुद्ध के महालक्षण हैं. न्यायाधीश ने कहा कि: ऐसी रिपोर्ट के बाद मंदिर के संचालन की एचआरएंडसीई को अनुमति नहीं दी जा सकती. यह मामला मूर्ति की गलत पहचान का है. रिपोर्ट से स्पष्ट है कि मूर्ति में बुद्ध को दर्शाया गया है. अब तक यह मंदिर हिन्दु देवस्थान विभाग के अधीन था और देख-रेख के लिए कार्यकारी भी नियुक्त किये गये थे जो अब जायज नहीं है. लिहाजा मूल स्थिति की बहाली होनी चाहिए. एचआरसीई द्वारा इसका प्रशासन बौद्ध धर्म के सिद्धांतों के खिलाफ होगा. पुरातत्व विभाग आयुक्त इसका नियंत्रण अपने हाथ में लें.
पुरातत्व विभाग ने अपनी जांच रपट में पाया था कि बुद्ध के कई महालक्षण प्रतिमा में पाये गये हैं. मूर्ति कमल पर है. बुद्ध जानेमाने अर्द्धपद्मासन में है. दोनों भुजायें ध्यान मुद्राओं में हैं. बुद्ध की घुंघराली लटें, लम्बे श्रवण (कान), उर्णा, माथे पर भांवरी दिखते हैं. अपने दस-पृष्ठ के आदेश में मद्रास उच्च न्यायमूर्ति ने समूचे मंदिर के रूप और स्वामित्व को ही बदल दिया.
इन सिद्धांतों और प्रमाणों के अलावा भी तुलनात्मक रूप में काशी तथा मथुरा में एक अत्यंत प्रमाणिक तथ्य उभर कर आता है. मुगल बादशाह मुहीउद्दीन मोहम्मद औरंगजेब (3 नवम्बर 1918 से 3 मार्च 1907) ने स्वयं राजपत्र जारी कर मथुरा तथा काशी में हिन्दु मंदिरों को तुड़वा कर शाही मस्जिद यमुनातट और गंगातट पर सैन्य बल के बूते बनवाया था. अर्थात संपत्ति हिंदुओं की थी.
अतः उन्हें हटाकर पुराने स्वामियों (हिंदुओं) को मंदिर भूमि सौंपने की कानूनी आवश्यकता है. न्यायसंगत है. मद्रास हाईकोर्ट द्वारा स्थापित चिन्हों, प्रमाणों, तर्कों से सभी पक्ष सहमत होंगे. संसदीय कानून है कि 15 अगस्त 1947 के पूर्व वाली स्थिति को अपरिवर्तित रखा जाना. यह अब पूर्णतया अवैध होगा. जिस संसद ने यह कानून बनाया था वहीं बहुमत द्वारा उसे निरस्त करने में सक्षम है. कर सकते है. करना भी चाहिये. कानून भी यहीं मानता है. नैसर्गिक न्याय और ऐतिहासिक संतुलन का यही तकाजा है.
(उपरोक्त विचार सीनियर जर्नलिस्ट के.विक्रम राव जी के हैं, आप देश-दुनिया के नामी न्यूज प्लेटफार्म पर अपने विचार लिखते रहते हैं.)