नौकरशाही से राजनीति में प्रविष्ट हुये यशवंत सिन्हा को यदि कुछ भी लाज—लिहाज हो तो राष्ट्रपति चुनाव से हट जायें. हजारीबाग में अपने व्यवसाय को देखें. व्यापार बढ़ायें, ज्यादा मुनाफा कमायें. राजनीति में हनीमून पर दोबारा आये हैं. अब पूरा हो गया. क्योंकि जनसेवा तो राजनीति में अब चन्द निस्वार्थ जन के लिये ही रह गयी है. यशवंत सिन्हा को इसी जुलाई 1 को ही नाम वापस ले लेना चाहिये था, जब उनकी प्रस्ताविका कुमारी ममता बनर्जी ने कहा था: ”भारतीय जनता पार्टी ने राष्ट्रपति पद हेतु राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) की उम्मीदवार द्रौपदी मुर्मू को चुनावी मैदान में उतारने से पहले विपक्ष के साथ चर्चा की होती तो विपक्षी दल उनका समर्थन करने पर विचार कर सकते थे.” उन्होंने यह भी कहा कि ”मुर्मू के पास 18 जुलाई होने वाले राष्ट्रपति चुनाव जीतने की बेहतर संभावना है, क्योंकि महाराष्ट्र में सत्ता परिवर्तन के बाद एनडीए की स्थिति मजबूत हुयी है.”
उत्तर प्रदेश जो राष्ट्रीय राजनीति का ध्रुव केन्द्र है में यशवंत सिन्हा के लिये धूमधाम से अखिलेश यादव ने समर्थन जुटाया. पर दरार पड़ गयी. चचा शिवपाल के शब्दों में भतीजा अपरिपक्व हैं. मगर नासमझी इस कदर ? ओमप्रकाश राजभर को न बैठक में बुलाया. न उनसे सिन्हा के लिये समर्थन मांगा. खिसियाये राजभर योगी आदित्यनाथ के घर पर डिनर खाने चले गये. वहां द्रौपदी मुर्मू के लिये सभी अपने वोट की घोषणा कर रहे थे. वहीं शिवपाल सिंह भी वादा कर आये. शिवपाल समाजवादी पार्टी के कुछ और वोट काट सकते हैं. उन्होंने ने कहा कि ”मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने राष्ट्रपति चुनाव में राजग प्रत्याशी द्रौपदी मुर्मू के पक्ष में वोट मांगा है. लिहाजा मैं मुर्मू को ही वोट करूंगा.” श्री यादव ने यहां कहा, ”मैंने पहले ही कहा था, राष्ट्रपति चुनाव में जो प्रत्याशी मुझसे वोट मांगेगा, मैं उसके पक्ष में वोट करुंगा. योगी आदित्यनाथ ने मुझसे (द्रौपदी मुर्मू के लिये) वोट देने को कहा था और मैंने फैसला किया है कि मैं उन्हें वोट दूंगा.” जयंत चौधरी बच गये. सपा मुखिया के साथ रह गये. मगर क्या फर्क डाल पायेंगे?
सिलसिलेवार अन्य राज्यों पर गौर करें. अन्नाद्रमुक और अन्य सहयोगी दल एनडीए की प्रत्याशी द्रौपदी मुर्मू का समर्थन करेंगे. मुर्मू ने अन्नाद्रमुक नेताओं—के. पलानीस्वामी और ओ. पन्नीरसेल्वम, तमिल मनीला कांग्रेस के अध्यक्ष जी. के. वासन, पट्टाली मक्कल काचि (पीएमके) के अध्यक्ष डॉ. अंबुमणि रामदास से मुलाकात की. सभी ने उनके प्रति समर्थन व्यक्त किया. वहीं शिरोमणी अकाली दल (शिअद) ने भी कहा कि वह राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) की उम्मीदवार का समर्थन करेगा. शिअद ने मुर्मू का समर्थन करने का फैसला किया है. पार्टी का मानना है कि वह अल्पसंख्यकों, शोषित और पिछड़े वर्गों के साथ—साथ महिलाओं की प्रतीक है. देश में गरीब व आदिवासी वर्गों के प्रतीक के रुप में उभरी हैं. यही वजह है कि पार्टी राष्ट्रपति चुनाव में उनका समर्थन करेगी. ”सिख समुदाय पर अत्याचारों के कारण हम कांग्रेस के साथ कभी नहीं जायेंगे.”
पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी कह चुकीं हैं कि ”यदि एनडीए की ओर से पहले द्रौपदी मुर्मू की उम्मीदवारी के बारे में बता दिया जात तो हम भी राजी हो जाते और सर्वसम्मति से उन्हें चुना जा सकता था. ममता बनर्जी ने द्रौपदी मुर्मू की जीत की संभावनाएं ज्यादा होने की बात भी स्वीकार की.”
बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने राजग उम्मीदवार के बारे में कहा, ”हम लोगों को पूरा भरोसा है कि मुर्मू भारी बहुमत से जीतेंगी. यह बहुत खुशी की बात है कि एक आदिवासी महिला देश के सर्वोच्च पद के लिये उम्मीदवार है.” मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन का झारखण्ड मुक्ति मोर्चा अब द्रौपदी को वोट देगा जिससे गठबंधन सहयोगी कांग्रेसी पार्टी को शर्मिंदगी उठानी पड़ेगी.
बहुजन समाज पार्टी (बसपा) की अध्यक्ष एवं उत्तर प्रदेश की पूर्व मुख्यमंत्री मायावती ने स्पष्ट किया कि सिर्फ अनुसूचित जनजाति की महिला होने के कारण ही उनकी पार्टी ने द्रौपदी मुर्मू को राष्ट्रपति चुनाव के लिये समर्थन देने का ऐलान किया है. उनका एक ही विधायक है.
प्रतिद्वंदी यशवंत सिन्हा ने द्रौपदी पर तनिक शकुनि के अंदाज में विवाद उठा दिया. वे बोले कि ”यह महिला प्रत्याशी रबर स्टांप राष्ट्रपति बनेगी.” सिन्हा की घोषणा है कि वे खुद राष्ट्रपति चुने गये तो ”केवल संविधान के प्रति उत्तरदायी रहूंगा.” हालांकि भारत का संविधान गत 70 वर्षों में 108 बार संशोधित हो चुका है. तुलना में अमेरिका का संविधान गत सवा दो सौ वर्षों में केवल 25 बार संशोधित हुआ. जब 1975 में एमर्जेंसी इंदिरा गांधी ने थोपी थी तो जनाब यशवंत सिन्हाजी कलक्टरी कर रहे थे. सरकारी अफसर थे उस शासन के जो भ्रष्टाचार—विरोधी संघर्ष में जननायकों को जेल में कैद कर रही थी. तब उन्हीं के परिवारजन लोकनायक जयप्रकाश नारायण भी इंदिरा गांधी की जेल में नजरबंद थे. बाद में इन्हीं जेपी की सिफारिश पर प्रधानमंत्री मोरारजी देसाई ने सिन्हा पर कृपादृष्टि दर्शायी थी. यही सिन्हाजी अब आदिवासी गरीब विधवा द्रौपदी मुर्मू से बेहिचक वचन मांग रहे है कि वे ”नाममात्र” की राष्ट्रपति नहीं रहेंगी. खामोश नहीं रहा करेंगी. मगर जब दस साल मनमोहन सिंह गूंगे रहे, सोनिया की धौंस के चलती रही, तब?
अब जानिये अगर सिन्हा स्वयं राष्ट्रपति बन गये (मुंगेरी लाल के सपने जैसा) तो यशवंतजी क्या—क्या कर देंगे? वे केन्द्रीय संस्थाओं द्वारा विपक्ष को तंग करना बंद करा देंगे. नीक है, सब इसे स्वीकारते हैं. सांप्रदायिकता को रोकेंगे? दुरुस्त है. राज्य सरकारों को डगमायेंगे नहीं. यह भी वाजिब है. मगर इंदिरा गांधी काल का यही सरकारी (84—वर्षीय) नौकर चालीस साल के दौरान तो ”जी हुजूरी” भर करता रहा. कैसा कर्तव्य निभाया?
यशवंत सिन्हा को बैठ जाने के आग्रह के लिये तर्क है, वे कभी भी गंभीर चुनौती देने वाले, प्रत्याशी नहीं रहे. विपक्ष की चौथी पसंद रहे. शरद पवार चतुर थे. हार की प्रतीती हो गयी थी. पलायन कर गये. अधिक फजीहत से बचने के पूर्व यशवंत सिन्हा को संतुष्ट होना चाहिये कि उन्हें आशातीत प्राप्ति तो हो गयी. हशिए पर पड़े इस राजनेता को फोकट में देशव्यापी मीडिया पब्लिसिटी मिल गयी. बड़े—बड़े राजनेताओं से भेंट हो गयी जो अब उनके समर्थक बन बैठे. बिन रकम खर्चे सिन्हा लाभ पा गये. विपुल चुनावी बजट पा गये. फ्री भारत दर्शन करने का मौका मिल गया. अब उनके राजनीति करने में कुछ ही वर्ष रह गये है. वानप्रस्थ खत्म हो गया. संन्यास का वक्त दस साल पूर्व ही आ गया था. अभी भी देर नहीं है कि सिन्हा साहब रिटायमेंट की घोषणा के लिये. इसमें राष्ट्रहित है. उनका यश भी बना रहेगा.
साहित्य में यश का रंग सफेद, धवल कहा गया है. कवि भूषण ने कहा था कि छत्रपति शिवाजी के अपार यश से तीनों लोकों में सफेदी छा गयी. तब इन्द्र अपने सफेद हाथी ऐरावत को तलाशते रहे. खुद ऐरावत गोरे इन्द्र को खोजता रहा. अत: सारी गोरी चीजें और गोरे लोग खो गये. अब यशवंत को भी यश की तरह गोरे बने रहना चाहिये. पराजय की कालिमा से बचें.
(उपरोक्त विचार सीनियर जर्नलिस्ट के. विक्रम राव जी के हैं, आप देश-दुनिया के नामी न्यूज प्लेटफार्म पर अपने विचार लिखते रहते हैं.)